Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 146 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १६१

नितापत्री बहुतो मदपानी१।
सभि को बकहि खोटि बडि बानी ॥२०॥
मिरगी रोग हुतो तिस भारी।
बाकुल करहि अुठहि जिस बारी।
एक दिवस तिस के मन आई।
सुनि पिखि श्री अंगद बडिआई ॥२१॥
तबि समीप गुर के चलि आयो।
अपनो सरब ब्रितांत सुनायो।
आप तपा जी! परम क्रिपालु।
सभि भाखहिण तुम सुजसु बिसाल ॥२२॥
रोग अधिक मेरे तन मांही।
करहु क्रिपा जिम इहु मिट जाही।
तबि प्रतीत अुर मो कहु आवै।
जिमि इहु कीरति ब्रिंद सुनावैण२ ॥२३॥सुनि क्रिपालु इहु बाक बखाना।
जेकरि ताग देहिण मदपाना।
मिरगी बहुर न अुठहि कदाई।
तन अरोग तेरो हुइ जाई ॥२४॥
जे आइसु अुलणघहिण कित काला।
करहिण पान मद, होइण न टाला।
तहि मिरगी होवहि तन आनि।
जिस ते बिनस जाहिण तव प्रान ॥२५॥
सुनि बंदन करि सदन सिधारा।
ताग दीन मद पान कुढारा३।
रोग म्रिगी को भयो बिनासा।
सदा अरोगी होइ हुलासा ॥२६॥
चिरंकाल सुख भोगो पीना।
मन कठोर नहिण कीन पतीना।
भूल गयो जड़्ह गुर के बैनि।


१शराब पीं वाला।
२भाव, सिज़ख सारे आप दा यस जिवेण सुणाअुणदे हन।
३शराब पीं दी खोटी चाल।

Displaying Page 146 of 626 from Volume 1