Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) १५९
२२. ।पौराणक प्रसंग-धुंध ते अुतंक रिखी॥
२१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>२३
दोहरा: श्री सतिगुर हरिराइ जी,
लाखहु सिज़ख अुधारि।
सज़तनाम दे करि भगति,
करे पूर भरि पार ॥१॥
चौपई: निज शरीर को पिखि करि अंत।
चितवति चित सतिगुर भगवंत।
बैस अलप महि गुन ते महां।
तखतबिठावनि कौ चित चहा ॥२॥
पूरब अरु दज़खन सिख जेई।
पशचम अुज़तर बासी केई।
सभि थल हुते मसंद महाने।
लाखहु धन लेते तिस थाने ॥३॥
लिखे हुकमनामे गुर पूरे।
देखति आवहु इहां हग़ूरे।
जेतिक संगति आवहि संग।
आनहु सरब हकारि अुमंगि ॥४॥
ले करि हलकारे गन दौरे।
पहचे जाइ सु जित कित ठौरे।
सहत मसंदनि संगति सारी।
पहुचे कीरतिपुरी हकारी ॥५॥
चहूं दिशिनि ते संगति आई।
सुंदर अनिक अुपाइन लाई।
अपने अपने अवसर पाइ।
दरसहि श्री सतिगुर हरिराइ ॥६॥
आप जाइ लगर के मांही।
करैण अहार अनिक बिधि तांही।
संगति की पंगति बैठाइ।
निज कर ते सभि को त्रिपताइ ॥७॥
भगति करहि अुपदेश बिसाला।
जिस ते होवहि बसी क्रिपाला।