Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १६३

हुकम हटावनि कीनसि मोहि ॥३२॥
बाणधी हुती हुकम की एही।
हुकम न रहो, टिकहि कबि केही।
ततछिन अुठी१ चौधरी जाइ।
गिरो अटारी ते अुथलाइ२ ॥३३॥
सीस धरा पर+ लागो जबै।
फूटो निकसि मीझ३ तिह तबै।
ततछिन मरो मुगध दुख पाइ।
लियो सबंधनि++ दियो जलाइ ॥३४॥
सोरठा: सतिगुर सोण अुपहास४,
करे गरब धरि मूढ मति।
ततछिन होहि बिनाश,
परहि नरक मरि कै अगति५ ॥३५॥
चौपई: इक सेवक संगति के मांहि।
कहो न मानहिण सेवहि नांहि।
किसु के कहे टहिल नहिण करे।
चिरंकाल तिन अस बुधि धरे ॥३६॥
-जो गुर कहहिण काज सो करिहौण।
आन बाक के कान न धरिहौण-।
चिरंकाल बीतो तहिण रहे।
इक दिन श्री बुज़ढे बच कहे ॥३७॥
गुर संगति महिण भलो रहावनि।
भजन टहिल करि काल बितावनि।बैठे देहि काज किस आइ।


के मूंह ही नहीण सन दिखालदे ते वाक बी इहो कहे ने- सतिगुर को घर है नित नीवा॥ होन
हंकार थान नहिण थीवा॥ दूसरे इह आतम सज़ता दे कौतक हन। हुकम नाल हटी सी, हुकम
टुटदिआण आ गई। हरीके चौधरी दी कथा महिमां प्रकाश विच नहीण है।
१भाव मिरगी अुठी।
२अुलट के।
+ पा:-पग।
३मिज़झ।
++ पा:-संबंधी।
४हासी, मौल।
५बेगत।

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