Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १६४
छुहै न कोई१ म्रितु जब पाइ ॥३८॥
कहनि लगो गुर बाक कहैण जिमि।
टहल करौण तिस काल भले तिम।
कहो अपर को मानौण नांही।
यहि निशचै मेरे मन मांही ॥३९॥
बहुर तिसे बीता चिरकाल।
इक दिन बोलो श्री गुरु नालि।
बहुत दिवस को मैण अभिलाखी।
निज मुख ते कछु सेव न भाखी ॥४०॥
करो बाक तब बेपरवाहि।
अगनि जरहु, इहु सेवा आहि।
सुनि तबि गमनो बन के मांही।
लकरी करी बटोरनि२ तांही ॥४१॥
अगनिप्रजुलत३ हेरि करि डरो।
गुर बच परि नहिण टिकबो करो।
इक तसकर४ चोरी को माल।
लीये जात आयो तिस काल ॥४२॥
पिखि अचरज को पूछन करो।
इह कया करति इहां तै खरो?
गुर को बच मो कहु तिन कहो।
-जरो अगनि- अब जाइ न दहो५ ॥४३॥
तिस को गरब बिनाशनि हेत।
बोलो तसकर होइ सुचेत।
मैण कलमल कीने सुमदाइ।
इहां जरे ते सभि मिट जाइण ॥४४॥
मो ते दरब सरब अब लेवो।
श्री गुर बाक मोल मुझ देवो।
सुनि कै धन लीनसि ललचाइ।
१भाव देह ळ कोई नहीण छुणहदा।
२इकज़ठी।
३जलदी होई।
४चोर।
५सड़िआ नहीण जाणदा।