Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) १६३
२१. ।गोइंदवाल जाणा॥
२०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>२२
दोहरा: श्री अरजन जग सतिगुरू, संगति करति अुधार।
सहत अनद बिलद के, कितिक काल को टारि ॥१॥
सैया छंद: सिज़ख हग़ारोण शरनी परि हैण
सज़तिनाम को दे अुपदेश।
अग़मति जुति बहु जीव मुकति भे
काटे बंधन कुमति कलेश।
सेवा करि करि शरधा धरि धरि
पातक हरि हरि भए विशेश।
कितिक समीप रहति नहि गमनति,
दरशन को सुख लहैण अशेश ॥२॥
अपर देश करिबे किरतारथ
कितिक बिसरजन है चलि जाइ।
रिदे धान गुरू रूप बसावहि,निशचल मति करि नहीण डुलाइ।
मिलहि तिनहु१ अुपदेशति सिज़खी,
असि ते तिज़खी२ जो अधिकाइ।
गुरु भांे कहु मानैण सुख सोण
इक सम ब्रिती न शोक अुपाइ ॥३॥
जहि कहि गुर की बाणी बिथरी,
सुथरी करहि कंठ हरखाइ।
पातक दादर गन को अहनी३,
दहनी बिघन बिपन समुदाइ४।
म्रिगनि बिकार ब्रिंद को शेरनि५,
प्रेरनि मन की प्रभु दिसि धाइ६।
ब्रहम गान की सुगम सु जनिनी१,
१भाव गुर सिज़खां ळ।
२खंडे तोण तिज़खी।
३मारे पापां रूप डज़डूआण ळ सज़पणीवत।
४सारे बिघनां दे बन ळ साड़न वाली भाव अज़ग।
५समूह विकाराण रूपी हरनां ळ (जो) शेरनी वत (नाशक) है।
६दौड़दे मन ळ प्रभू तरफ प्रेरण वाली।