Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 152 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १६७

दोहरा: करति बनज फेरो फिरहिण,
धरम सहित क्रिति ठानि।
हुइ अदोश जिमि जीवका१,
निरबाहति गुग़रान ॥६॥
निसानी छंद: करहिण अबहि शुभ करम को,
सुख हुइ परलोकं।
नांहित राग रु दैश२++ महिण,
लहिण हरख रु शोकं३।
देय दमामा आनि जम, कछु है न अुपाई।
पछुतावहिण निज सिर धुनहिण, बय बाद४ बिताई ॥७॥
तीरथ कै तपसा करहिण, अब समो हमारा।
तरुन५ अवसथा इह बनहि, ब्रिध तन बल हारा-।
इतादिक तरकति६ रिदै, पुन निशचै कीना।
-सेवनि गंगा को करहिण, कलि महिण अघ छीना ॥८॥
खशट मास को प्रनकरो, बाहन बिनु चाले७।
सुरसरि८ नीर शनानही, धरि हरख बिसाले९।
रिदे कामना हीन हुइ, पूजहिण थित तीरा।
चंदन चरचति१० कुसम११ गन, अरपहिण अुर धीरा ॥९॥
देवहिण* धूप सु नम्रि हुइ, जल डालि पतासे।
बरत करहिण तिस कूल१२ पर, रहि कर अुपवासे१३।


१जिवेण पाप तोण बिनां रोग़ी तुरे।
२मिज़त्राई अर वैर।
++पा:-दैख।
३प्रसंनता ते अफसोस।
४विअरथ आयू गुआई।
५जवानी।
६दलीलां करदिआण।
७सवारी बिनां भाव पैदल जावे।
८गंगा।
९बड़े खुश हो के न्हाअुणदे हन।
१०छिड़कदे हन।
११फुज़ल।
*पा:-खेवहिण। धुखवहिण।
१२कंढे।
१३निराहार।

Displaying Page 152 of 626 from Volume 1