Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १६८
अधिक भाअु धरि जाति हैण, जैकार अुचारे।
इसी रीति निशकाम ही, बहु बार पधारे१ ॥१०॥
चौपई: अति पविज़त्र जात्रा को करैण।
सरब बिकार रिदै परिहरैण।
काम न क्रोध न लोभ न धारैण।
सुच संजम के साथ सिधारैण ॥११॥
खशट मास बीते जबि जावैण।
ग्रिह भी बैठे सुरसरि धावैण।अूनबिंसती बार२ गए जबि।
देह जरजरी भूत३ भई तबि ॥१२॥
चलहिण चरन४ सिमरन को करिते।
अूचे जय जयकार अुचरिते।
बहुर बीसवीण बारि पधारे।
मिहड़ा५ ग्रामिक पंथ मझारे ॥१३॥
बसहि बिज़प्र इक तहिण अविदाति६।
हुतो सारसुत भंबी जाति७।
दुरगा नाम भनहिण तिस केरा।
करहिण जातरी तहां बसेरा ॥१४॥
आवति जाति पाइण बिसरामा।
सादर करहि अुतारन धामा८।
तहां गए श्री अमर सुजाना।
पंथ तपत भानुज मज़धाना९ ॥१५॥
थिरे१० दुपहिरा हेत बितावनि।
१कई वेर गए।
२अुनीवीण वार।
३भाव ब्रिज़ध।
४पैरीण तुरके जाण।
५इक पिंड दा नाम।
६स्रेशट, मशाहूर।
७ब्राहमणां दा इक गोत्र, संभावना है कि जिन्हां दे वडे सरसती नदी दे किनारे कदे वसदे सन सो
सारसत।
८घर अुतारा देवे।
९दुपहिर दे सूरज दी धुज़प करके राह तप रिहा सी।
१०टिके।