Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) १६६

२३. ।धुंधू नाल जंग दी तिआरी॥
२२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>२४दोहरा: गमनो मुनी अुतंक मग, पुरी अयुज़धा जाइ।
दारपाल सोण तिह कहो, न्रिप को देहु जनाइ ॥१॥
चौपई: -मुनी अुतंक आइ थित दारे।
मिलिबो चहिति तुमहि इक बारे-।
सुनति तुरत ही अंतर गयो।
मुनि आगवनि जनावति भयो ॥२॥
महिपालक सुनि रिखि की सुध को।
अुठो झटति करि कै सुधि बुधि को।
करि धरि पूजा सरब प्रकार।
चलि आयो तूरन निज दार ॥३॥
करि बंदन पादारघ१ दीनसि।
आदर सभि बिधि को बहु कीनसि।
अपने संग सभा मैण आनो।
प्रशन अनामै नम्रि बखानो२ ॥४॥
बडे भाग मोरे सभि भांती।
दीनसि दरस बिघन गन घाती।
आवनि सफल आपनो करीए।
निज आगवन सु हेतु अुचरीए* ॥५॥
सुनति मुनी ने निज भिज़प्राइ३।
महिपालक को दीनि जनाइ।
धुंधु दैत बर पाइ महाना।
मुनि सुर कंटक नित दुख दाना ॥६॥
हित हतिबे को करि अुतसाहू।
महां बीर तूं छज़त्रनि मांहू।
निज बल संसे को न बिचारहु।
प्रभू शकति ले असुर संघारहु ॥७॥
जसु बिसाल लीजहिअबिनाशी।

१भाव चरन धोते।
२सुख सांद दी पुछ निम्रता नाल कीती।
*पा:-बिचरीए।
३अभिप्राय, मकसद, आशय।

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