Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) १६६
२२. ।बुज़धु शाह ळ बर। काले खां॥
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दोहरा: निकसि गए जबि खान इम, सतिगुर त लिखवाइ।बुज़धूशाहि समीप तबि, तूरन दयो पठाइ ॥१॥
चौपई: अुपालभ बहु तिसै पठाए।
नौकर जे पठान रखवाए।
पावति रहे रोग़ दरमाहा।
धन गन लीनसि अपने पाहा ॥२॥
अबहि जंग को कारज परो।
देखि गीदीअन को मन डरो।
लखि राजन की सैन घनेरी।
बनि कातुर चढिगे तिस बेरी ॥३॥
जाइ गिरेशन साथ मिले है।
अस नौकर रखवाइ भले हैण।
भए मूढ मति निमकहरामी।
नहीण काम आए निज सामी१ ॥४॥
बुज़धूशाहि पड़्हो खत जबै।
धुनो सीस जुति चिंता तबै।
-मुझ को बीच दीनि मति मूढे*।
रण ते डर करि गए अरूढे ॥५॥
अुपालभ सतिगुर कहि साचो।
जिस ते परो तिनहु संग काचो२।
अबि पुरशारथ मैण निज करौण।
तन मन दै गुर कारज करौण- ॥६॥
चहति प्रभू ढिग अपनि रसीद३।
करे सकेलनि सकल मुरीद।
भए सात सै गिनती मांहि।
रण करिबे की धरति अुमाहि ॥७॥
चार पुज़त्र अपने संग लीने।
१आपणे सामी दे।*पा:-मुझ को दे शरमिंदत मूढे।
२मैण जिन्हां अज़गे कज़चा (फिज़का) पिआ हां।
३पहुंचंा चाहुंदा है।