Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) १६७

२१. ।कअुलां दुखी हो गुरू जी दी शरन आई॥
२०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>२२
दोहरा: बिन गुरु देखे दुख लहै, कौलां बहु बिललाइ।
रिदै बिलोकनि लालसा, नहि अुपाइ को पाइ ॥१॥
चौपई: काग़ी अरु काग़नि मन जानैण।
-चाबक लगे पीर को मानै१-।
रुचि सोण खान पान नहि कीनि।
परी रही मुख पर पट लीनि ॥२॥
जबि संधा होई तम छायो।
दासी को कहि कर समुझायो।
जाहु पीर ढिग कीजहि अरग़ी।
-गुर जी दरशन बरजी डरजी२ ॥३॥
सुधि बुधि अपर रही नहि कोई।
केवल दरस परायन३ होई।
क्रिपा करहु बर बदन दिखावहु।
मुझ मरती के प्रान बचावहु- ॥४॥
दासी! दशा पिखति हैण जैसी।
गुर ढिग करहुनिवेदन४ तैसी।
सुनति दुखातुर दीरघ जानी।
दुइ दिनि महि दुरबली महानी ॥५॥
खान पान की रुचि जिन तागी?
एकहु बारि महां अनुरागी।
कहि दासी ने धीरज दीनि।
कोण तरफति जोण जल बिन मीन? ॥६॥
करो शीघ्रता अतिशै नांही।
बिरह सिंधु ते पार पराहीण५।
तिमर भयो पिखि गमनी डेरे।
हाथ जोरि करि खरी अगेरे ॥७॥


१पीड़ ळ मंनदी है।
२डर करके हे गुरू जी! दरशन तोण वरजी होई हां।
३आसरे।
४भाव दज़स देह।
५पार हो जाएणगी।

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