Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) १६७

२२. ।सरमज़द॥२१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>२३
दोहरा: इम सरमद मन मसत है, थिरहि बग़ार मझार।
इक ुदाइ संग लिव लगी, दूसर सोण न चिनार१ ॥१॥
चौपई: कबि कबि बिजीआ२ पान करंता।
इक चित ब्रिती करति मतिवंता।
आनि देहि जो भोजन कोई।
त्रिपत रहै खै है मुख सोई ॥२॥
ए -ाहश बन समां बितावै।
बैठ इकाकी अनद अुपावै।
इक दिन करति भंग को पाना।
ढिग महिजिद३ को पिखति मुलाना ॥३॥
शर्हा वहिर इह बिजीआ पानि।
तूं कोण करति, न डर को मानि४।
सरमद कहो तोर हम डारी५।
इह फासी है ग्रीव तुमारी ॥४॥
मन को खोटा सुनति मुलाना।
जाइ संग नौरंग बखाना।
पुरि महि भी न शर्हा पर पाकी६।
बहुर बारता कहीअहि काण की ॥५॥
हुइ तोरे ते७ शरा अुदारा।
नांहि त परि है दीन बिगारा।
सरमद मसत होइ करि तोरी८।
तोरा शर्हा न जानहि तोरी९ ॥६॥


१पछां।
२भंग।
३मसीत।
४डर ळ नहीण मंनदा।
५असां (शरा) तोड़ सुटी हैण।
६शर्हा पज़कीहो के नां टरी।
७तोरा=हुकम नाल चलाअुणा।
८तोड़ी।
९शर्हा दा तोरा नहीण जाणदा, तां ते तोड़ी सू। ।पं: तेग = चज़लं, किसे हुकम दा मनवाइआ जाणा॥
(अ) तूं जिस (करड़ाई नाल) शर्हा तोरी है अुस दा तोरा (चज़लं) दी अुस ने नहीण प्रवाह कीती।

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