Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १७०

साध! साध!! तुझ को अहै, इमि ही निति कीजै ॥२०॥
अुतरहिण संगी गंग के, पावैण बिसरामा।
पावन को पावन करहिण, पावन हुइ धामा१।
बिज़प्र दीन बनि बिनै भनि२, मैण अबि नहिण लेअूण।
जबि सम्रज़थ होवहु महां, तबि लेनि करेअूण ॥२१॥
अबि मुझ सोण कहि दीजीअहि, -बाणछत हम दै हैण-।
तबि चेतहु इस समैण को, हम आनि मिलै हैण।
सुनि श्री अमरबखानिओण, कैसे तुव जानी।
कैसे ऐशरज होइ है, करि सकल बखानी ॥२२॥
दिज भाखो तुम पद पदम, पदमापति जैसे३।
अति अुज़तम लछन इही, फल भयो न कैसे!
तअू अगारी होहिगो, प्रभु जोति मिलैहै।
चज़क्रवरति राजा किधौण, किस काल बनै है ॥२३॥
निरसंसै मम बारता, निशचै करि लीजै।
ऐशरज होइ त जाचिहौण*, तबहूं तुम दीजै।
सुनि प्रसंन चित अति भए, होवहु बच साचा।
मिलहु हमैण तबि आनि कै, लिहु जो करि जाचा ॥२४॥
कहि दिज सोण मारग चले, आवनि को धामा।
इक ब्रहमचारी बेस महिण, जिह मति अभिरामा।
मिलो संग श्री अमर के, किय बचन बिलासा।
चलति पंथ शुभ कथा प्रभु, बहु भांति प्रकाशा ॥२५॥
सरब दिवस संगी रहे, अुतरे इक थाना।
गमने बहुर प्रभाति को, हित दुहूंअनि* ठाना।
जावदि आए सदन निज, तावदि रहि संगा४।
खान पान इकठो करहिण, सिमरति अुर गंगा ॥२६॥
घर अपन श्री अमर जू, आनो ब्रहमचारी।
सादन खान रु पान को, दीनसि हित धारी।१चरनां ळ पाअुणा करदे हन (यात्री तांते) पविज़त्र हो जाणदा है घर (तुसाडा)।
२बेनती कीती।
३विशळ वरगा कमल (चिंन्ह) तुसाडे चरनां विच है।
*पा:-तब ही चहौ।
*पा:-दुलहन।
४भाव घर पहुंचदे तक नाल रिहा।

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