Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) १६८
१९. ।भाई साधू रूपा॥
१८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>२०
दोहरा: पूरन भे नव मास जबि, अुपजो सुत बडभाग।
सुंदर बदन सुहाइ पिखि, नर नारी अनुराग ॥१॥
चौपई: भयो बरख दिन को जबि बालिक।
ले गुर ढिग पहुंचे ततकालक।
श्री हरि गोविंद हुते सुधासर।
साधू कीनि शनान अघनहर१ ॥२॥
जथा शकति धरि भेट अगारी।हाथ जोरि करि बंदन धारी।
बानी बिनती सहत अुचारी।
तुम क्रिपाल है कुमति बिदारी ॥३॥
इहु रावर की बखशी दात।
सुंदर भागवान भा तात।
नाम आप ही राखन करीअहि।
हुइ सिख तुमरो बाक अुचरीअहि ॥४॥
श्री गुर पिखो रूप अभिरामू।
रूप चंद धरि यां ते नामू।
भाई रूपा इहु बिदिताइ।
गुर सिज़खी धरि है अधिकाइ ॥५॥
सुनि गुर बर दंपति हरखाए।
केतिक दिन गुर निकटि बिताए।
पुन आगा ले करि घर आए।
सतिगुर को सिमरति सुख पाए ॥६॥
खशट मास कबि बरख बितावैण।
धरहि भाअु गुर दरशन जावैण।
जथा शकति पट दरब चढावैण।
ले आइसु पुन निज घर आवैण ॥७॥
पारि पुज़त्र को कीनि बडेरा।
सिज़खी महि चित जाहि घनेरा।
पित सुत सिज़खी अधिक कमाई।
१पापां दे नाशक (श्री अंम्रत सरोवर विच)।