Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १७१
भई निसा हित सैन के, अूपर आरूढे।
करहिण परसपर बारता, अंतरगति गूढे१ ॥२७॥
किस प्रसंग पर बारता, बोलो ब्रहमचारी।
गुरू तुमारो कवन है, किम दीखा धारी२?
सुनि श्री अमर बखानिओ, गुरु मोहि न पायो।
खोज रहो अभिलाख सोण, को द्रिशटि न आयो ॥२८॥
नहिण दीखा किस की लई, मैण करी न सेवा।
अबि लग बाणछत हौण रिदै, करिहौण गुरदेवा।
सुनति दुखो अति चित बिखै, बोलो ब्रहमचारी।
तप तीरथ ब्रति घाल बड, भी बिफल३ हमारी ॥२९॥
महां श्रमति४ हुइ मैण करे, सभि बादि गवाए।
भयो अचानक साथ तुम, इमि कहि पछुताए।
निगुरे को संगी भयो, किय खान रु पाना।
पुंन अकारथ सभि भए, मुझ चिंत महांना ॥३०॥
ब्रिज़ध होति लौ इम रहे५, नहिण गुरू बनायो?महां करम खोटा कियो, मनमति बिरमायो।
चित महिण अति रिस करति ही, अुठि मारग लीना।
अमरदास पशचाति तिसु, पछुतावनि कीना ॥३१॥
अपर सरब ही सुध गई, इक ही लिव लागी।
-गुरू मिलहिण, करि लेइ हौण- इज़छा बहु जागी।
प्रभु आगै बिनती करी -पूरहु मम आसा।
दीनबंधु हरि दयानिधि! लखि दासन दासा ॥३२॥
रावर के पद पदम ते, निकसी शुभ गंगा।
सेवी मैण बहु काल लग, निशकाम अुमंगा।
अबि सतिगुर मुझ को मिलै, सभि हूं फल पाअूण।
अंतरजामी सरब के, कहि किसहि सुनाअूण- ॥३३॥
चिंता चित ते दीन हुइ, बिनती बहु भाखे।
दिवस न बीते दुखद बहु, अुर गुरु अभिलाखे।
१भाव, दिल दीआण गूड़्हीआण गज़लां।
२ते किवेण गुर मंत्र लिआ है?
३बिअरथ।
४मेहनत नाल।
५भाव गुरू हीन रिहा।