Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १७३

दीरघ सास अुसारितो१, इक तौ ब्रिध देही।
गंगा आवति जात मग, बल बिना अछेही२।
प्रेम अधिक चिंता बहुत, अुर महिद बिसूरा३।
कै मरिहोण कै मिलहि अबि, स्री सतिगुर पूरा ॥४०॥
धिक जीवनि सतिगुरु बिना, कुछ सरै न काजू।
गुर बिन छिति को राज का, धिक सुरपुरि४ राजू।
तप, तीरथ, बरत रु धरम, बिन गुर निफलावैण।
गुर बिन लोक प्रलोक के, सुख सकल नसावैण ॥४१॥
सतिगुर पूरा जे मिलहि, दे निज अुपदेशू।
सफल तपादिक होति हैण, मिट जातिकलेशू।
करम हीन इम मैण रहो, अबि सतिगुर पाअूण।
नातुर तजि कै अंन जल, निज तन बिनसाअूण- ॥४२॥
इति श्री गुरु प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे स्री अमर प्रसंग बरनन
नाम चौदशमोण अंसू ॥१४॥


१लमे साह भरके।
२निरंतर।
३बड़ा झूरदे हन।
४सरग दा।

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