Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) १७१
२४. ।धुंधू बज़ध कथा॥
२३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>२५
दोहरा: सुनति कुलाहल करन महि१,
जागो असुर सुचेत।
सैल सशिं्रग अुतंग जोण,
सभि अवनी जनु केत२ ॥१॥
चौपई: इस प्रकार ठांढो बड दैत।
३अुतसाही, प्राक्रमि, सुर जैत१।
इत ते न्रिपति सथिति भा संदन।
जग कंटक को४ चहिति निकंदन ॥२॥
सुत गन सहत बाहनी सारी।
शसत्र असत्र धारे तन भारी।
दैत बधनि की काणखावान५।
छोरनि करे महां खर बान ॥३॥
देखति धुंधु बदन मुसकानो।
दारुन महिदै बाक बखानो६।
भो भो भूप! कवन तूं अहैण?
मम प्राक्रम को तूं नहि लहैण? ॥४॥एक ग्रास भी होइ न मेरा।
का तूं ठाढो मूड़्ह बडेरा।
सुपति शेर कोण आनि जगावा।
मैण सगरो सुर कटक पलावा ॥५॥
को नहि अटको मोहि अगारी।
मम डर तीन लोक महि भारी।
तैण कैसे करि जानो नांही।
१कंनां विच।
२अुज़ची चोटी सहत पहाड़, जिवेण सारी प्रिथवी दा मानो झंडा रूप हुंदा है। (इस तर्हां दा अुज़चा
अुह दैणत सी।)।
(अ) पहाड़ वरगे दैणत दे सिंग बी अरथ लाअुणदे हन।
(ॲ) सारी प्रिथवी विच मानोण झंडा है।
३अुतशाह वाला, बली, देवतिआण दे जिज़तं वाला।
४भाव दैणत ळ।
५इज़छावान।
६बड़ा भिआनक वाक अुचारिओस।