Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) १७१
२२. ।महांदेव जी दा प्रलोक गमन॥
२१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>२३
दोहरा: पूरनमाके जज़ग महि, सिख मेला दरसाइ।
दरशन जिम श्री अमर को, फल तैसे नर पाइ ॥१॥
सैया छंद: श्री अरजन पुन पुरि महि बासे
होति भयो अतिशै सतिसंग।
नितप्रति चरचा आतम केरी
करहि जानि -इह तनु छिन भंग-।
भजन पराइनि इक रस है करि
प्रीति वधहि परमेशुर संग।
सभि को अुपदेशति म्रिदु बाकनि
जिस ते चढहि भगति को रंग ॥२॥
सवा जाम जामनि ते किरतनु
करहि रबाबी शबद अुचारि।
श्री अरजन जुत मुहरी आदिक
सुनै सकल अरु करहि बिचार।
मिज़था जगत जानि करि निशचे
अंतरब्रिती करहि सुख कार।
मनो महां मुनि मन सुध करिबे
कपल रिखी जुत के अनुहार१ ॥३॥
देखि प्रताप अनुज को तबिही
जिनके अुपदेशति हुइ गानु।
भ्रात सबंध जानि करि कूरो
महांदेव शरधालु महान।तन तजिबे को समैण निकट लखि
जनम सफलता चहि मन मानि।
श्री अरजन को लखि इकाणत महि
गयो समीप बैठि हित ठानि ॥४॥
श्री सतिगुरू की गादी पर तुम
ईशुर के सरूप अवतार।
मैण भ्राता ही जानति नित चित,
१वाणू।