Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १७६
लोहे को पारस छुवै, कंचन हुइ जाई।
मम* मनूर को गुर मिलहिण, सुध करहिण बनाई।
मनहु सबद मुझ पर कियो१, अस दशा सरीरा-।
इम बिचारि बूझति भए, आशै गंभीरा२ ॥१०॥
शबद करो किस को अहै, कित ते तुम पावा?
करनहारि३ अबि है कि नहिण? जिन शुभ पद गावा।
सुनति रोम हरखन भयो४, मन प्रेम बंधायो।
मेरे हेत अुधारिबे, इह रुचिर बनायो ॥११॥
सुनि बीबी अमरोकहो, श्री नानक पूरे।
तिनहु बनायो शबद को, जिस महिण फल रूरे।
अपर बहुत बानी बनी, तिन के मुख दारा।
जिस के पठिबे प्रेम ते, भअुजल निसतारा ॥१२॥
सुनहिण पठहिण मेरो पिता मन* प्रेम बिसाला।
गाइण रबाबी तिनहु ढिग, थित दोनहु काला।
श्री सतिगुरु नानक अबै, बैकुंठ पधारे।
निज सथान निज जोति दे, मम पिता बिठारे ॥१३॥
तिनहुण निकट ते कंठ करि, बहु सुनति रहंती५।
सतिगुर गिरा प्रचार तहिण, गन किलविख हंती।
सेवति सिज़ख अनेक हैण, जिन के वडभागा।
सरब बिकारनि तागि कै, मन सिमरन जागा ॥१४॥
सुनति अमर बोले बहुर, दुहिता६! सुनि लीजै।
मेरे पर अुपकार इहु, करुना करि कीजै।
लेहु संग तहिण को चलहु, दिहु मोहि मिलाई।
दरशन की पासा लगी, अब रहो न जाई ॥१५॥
ब्रिज़ध अनाथ अजान मैण, समरथ ते हीना।
*पा:-सम।
१मेरी (हालत) ते रचिआ है।
२भाव स्री अमर जी।
३रचं वाले।
४लूं खिड़ गए।
*पा-नित।
५भाव मैण आपणे पिता गुरू जी पासोण बहुत सुणदीरहिणदी हां ओथोण ही कंठ कीता है।
६हे बेटी!