Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १७७

मरति मोहि जीवाइ हैण, हे सुता प्रबीना'!१।
सुनि अमरो ने पुन भनो तुम ब्रिज़ध२ हमारे।
कोण नहिण मानौण बैन को, मैण बिना बिचारे ॥१६॥
मो कहु ससुर सथान हो३, सम पिता बिचारौण।
इक परंतु मैण डरति हौण, बिन कहे पधारौण।
पित सतिगुरु को अदब सोण, दरसोण दरसंना४।
तिन रजाइ मैण नित रहौण, बहु करौण प्रसंना ॥१७॥
जावौण निकट न बिन कहे, बिन बिदा न आवौण।
रिसि करि कुछ नहिण कबि कहैण, जाण ते डर पावौण।
सुनि बोले श्री अमर जी तूं मति करि चिंता+।
अंतरजामी घटन के, हुइण जे भगवंता ॥१८॥
तौ न करहिण मन भंग को, हेरहिण मन प्रेमा++।
दास जानि ढिग राखि हैण, दै हैण मग छेमा५।
ब्रिज़ध बिनै सुनि दीन की, अमरो करि तारी।
झीवर लीए हकारि६ कै, चढि करि असवारी७ ॥१९॥
चले पंथ शुभ शगुन ते, शुभ बही समीरा८।
परखति, हरखति चिज़त महिण, हुइ काज गहीरा।
सने सने मारग चले, पिखि ग्राम खडूरा।बीबी अमरो तबि कहो, पित सतिगुर पूरा ॥२०॥
ग्राम निकटि तुम बैठीए, मैण जाअुण अगारी।
पिखि सुभाव सतिगुरू को, पुन लेहुं हकारी९।
आगा करहिण प्रसंन हुइ, पूछौण जबि जाई।
मिलहु बहुर, ढिग रहहु तिन; लखि चलह रजाई ॥२१॥


१सिआणी।
२वडे।
३सहुरे दी थां।
४दरशन देखदी हां।
+पा:-मत कर चित चिंता।
++पा:-मम प्रेमा = मेरे प्रेम ळ।
५कलान दा राह।
६बुलाइ लए।
७भाव डोले तोण है।
८पौं।
९सज़द लवाणगी (तुसां ळ)।

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