Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)१७९

पहित भात१ बरतो प्रथम, पुन आमिख२ आवा।
इक दिश पंकति महिण दयो, तब इन दरसावा३।
बहु गिलान४ ठानी रिदै, इमि करति बिचारा।
-मैण आमिख खायो न कबि, करि अंन५ अहारा ॥२८॥
पंकति मैण अबि बैठगा, किमि होहि बचाअू।
नहिण लेवोण अपमान ही, कोण बैठो आअू६।
आयो सतिगुर करन को, बिगरहि इमि बाती।
सिज़ख न करि हैण मोहि को, मन हटि इस भांती७ ॥२९॥
अपर जतन अबि को नहीण, जे अंतरजामी।
सूपकार को८ बरज हैण, आपहि गुरु सामी।
इक तो मेरो धरम रहि, पुन हुइ परतीता।
जग ते करहिण अुधार मम, सरबज़ग पुनीता९- ॥३०॥
इमि कीनो संकलप को, श्री गुरु नै जाना।
सूपकार को बरजिओ, मुख बाक बखाना।
पंकत महिण जो नवो नर, तिस देहु अहारा।
आमिख नांहि परोसीए, तिन धरम बिचारा१० ॥३१॥
नहीण दयो तबि मास को, सभि संगति खायो।
त्रिपत भए पंकति अुठी, जल पान करायो।
-मम मन की गति गुर लखी-, हरखो अुर भारी।
-भए पुंन मेरे अुदे-, बहु करति बिचारी ॥३२॥
-अब इन ते आछो गुरू,कतहुण न दरसावोण।
धंन भाग इहु जे मिलैण, सम और न पावौण।
श्री प्रभु श्री गंगा सुनी, मैण बिनै जु कीनी।


१दाल चावल।
२मास = महां प्रशादि।
३भाव श्री अमर जी ने देखिआ।
४सूग।
५(ते) करदा हां अंन दा अहार।
६ना लवाण तां अपमान होवेगा, मैण किअुण आ बैठा (पंकत विच)। (अ) भाव रसोईए कहिंगे कि जे
इन लैंा नहीण सी तां पंकत विच आ किअुण बैठा।
७इस तर्हां गुरू जी दा मन परे हट जाएगा।
८रसोईए ळ।
९भाव गुरू अंगद जी।
१०(अुस ने मास ना खां) धरम समझिआ है।

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