Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) १७६
शुभ मग अुपदेशति करि धीरा।
निज सथान महि पहुचहि जाइ।
नित सिज़खन के रहैण सहाइ ॥४०॥
अुपजहि प्रेम भाअु मन जाण के।
अंग संग सतिगुर हैण तां के।
सज़तिनाम सिमरन कौ दीन।
जिस ते बनहु नहीण कबि दीन ॥४१॥
धरा राज हित शसत्र गहाए।
मरहि जंग महि सुरग सिधाए।
देवी मात अंक महिपाए+।
सकल अकाल पुरख लड़ लाए ॥४२॥
बेद शासत्र ते सार निकासा++।
निज बाणी महि गुरनि प्रकाशा।
पठहु सुनहु अुपदेश कमावहु।
गुर के लोक निसंसै जावहु ॥४३॥
तन की गति ऐसे ही होति।
बिनस जाति है जितिक अुदोत।
जिनहु नरहु सिमरो सतिनामू।
आतम गानी थिर निज धामू ॥४४॥
तिनहु आपनो जनम सुधारा।
परे पार जग पारावारा।
बहुर न जनम मरन महि आए।
सति चेतन आनद समाए ॥४५॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे अुज़तर ऐने सतिगुर अुपदेश प्रसंग
बरनन नाम इकबिंसती अंसू ॥२१॥
+देखो रुत ३ अंसू १२ दे अंत दी टूक।
++देखो रास ३ अंसू ४१, ४२ ते ४३ दीआण हेठलीआण टूकाण।