Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १८०

इहु पूरन अवतार हैण-, शरधा धरि लीनी ॥३३॥
करि भोजन बैठो वहिर, एकाकी होवा।
चितवति चित महिमा गुरू, संसै सभि खोवा।
निसा बिताई पुन दिवस, भोजन भा तारी।
मिलि पंकति बैठो तहां, मन मैण इम धारी ॥३४॥
-श्री गुर सदा सरबज़ग हैण, संसै किछु नांही।
तअू मोहि मन भावनी, लखि निज अुर मांही।
सीत प्रसाद सरबोतमं, बिन जाचे मोही।
क्रिपा धारि सो देहिण अबि,अुर मम सुध होही- ॥३५॥
इमि चितवति भोजन करो, श्री गुर नै जानी१।
आप अचो त्रिपताइ कै, पुन पीवति पानी।
पीछै अुचरो दास को, जो बचो अहारा।
देहु पुरखु तिस जाइ करि, चहि रिदै अुदारा ॥३६॥
सुनति अनद बिलद भा, ले करि तब खायो।
निशचल निशचै चित भयो, सम मेरु थिरायो।
भई शांति, दुबिधा नसी; मन तहां टिकावा।
पानि करो जल धोइ कर, बाहर पुन आवा ॥३७॥
रहो इकंत सु बैठि करि,
सभि दिवस बितायो।
भोजन को जबि समो हुइ,
तबि अंतर आयो।
पंकति महिण बैठहि तहां,
जो देहिण सु खावै।
पुनहि इकाकी होइ करि,
प्रभु गुन मन लावै ॥३८॥
चौपई: इस प्रकार दिन कितिक बिताए।
रहहि वहिर ले भोजन खाए।
श्री अंगद पुन नहीण बुलायो।
कबहुण न बच श्री मुख फुरमायो ॥३९॥
नहिण संगति महिण मिलहि लजावहि२*।


१स्री अमर दास जी दे(दिल दी) जाण लई।
२भाव शरम करके संगत विच फिरदा टुरदा नहीण (रोटी वेले मिलके जा बैठदा है)।

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