Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) १८०

२३. ।काग़ी धन लैं सुधासर आइआ॥
२२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>२४
दोहरा: श्री गुर बासे महिल निज, खान पान शुभ कीनि।
रामदास पुरि महि महां, अुतसव करि सुख भीनि ॥१॥
चौपई: दीपमालका जहि कहि होई।
घर घर हरखति हुइ सभि कोई।
गुरू सराहति आपस मांहू।डील बिलद, करी कर बाहू१ ॥२॥
मुख मयंक सुंदर अकलका।
बनो बनाअु बीर बर बंका।
केचित कहहि सोहि सोण बोले।
मुसकावति पिखि दसन अमोले ॥३॥
बूझी कुशल मोहि कहि कोई।
कहि को क्रिपा द्रिशटि मुझ होई।
केचित कहैण बिसाल सुशील।
बरनहि को बिलद बर डील ॥४॥
दीपक बारे अूच अटारनि।
सदन सदन के सुंदर दारनि।
बहु दिवसनि महि२ बसे अवास।
जहांगीर ले गमनो पास ॥५॥
पुरि जन इस प्रकार बहु रीति।
करहि सुजसु को अुर धरि प्रीत।
बीच बग़ारनि दीपक बारे।
बहु रवंक३ होई पुरि सारे ॥६॥
सुपति जथा सुख निसा बिताई।
भोर भई अुठि करि समुदाई।
सौच सु मज़जन करि करि सारे।
श्री हरि गोविंद रूप निहारे ॥७॥
सभि संगति को दरशन देति।


१बाहां हाथी दी सुंड वत।
२पिज़छोण।
३रौंक।

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