Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १८४

संमत गो बीत जबि इस बिधि,
जीरण१ बसत्र धरे तन मांहि।
श्री अंगद सेवा के ततपर
अपर मनोरथ होहि न काहि।
खान पान निरबाह देहि हित
छुधा पिपासा बहु बिरधाहि२।
तबि कुछ करहिण३, पहिरबे पट की
सुधि बुधि कौन करहि? हुइ नांहि४ ॥८॥
एक बरख बीतो पिखि सतिगुर
गज डेढिक तब दीन रुमाल।
सो ले करि निज सीस चढायो
द्रिढ करि बाणधो रसरी नाल।
बहुर अुतारनि को नहिण कीनसि
लखि करि गुरू प्रसादि बिसाल।
सेवा करहिण तिसी बिधि निस दिन,
जल आनहिण चहीअहि जिस काल ॥९॥
बरख बहज़तर* भाई आरबल
तबि आए सतिगुर के पासि।
निबल सरीर, जरजरी भूत सु
तअू सेव कोधरहिण हुलासि।
आलस ताग करति अुज़दोगहि५
कलस अुठाइ लाइण जल रासि।
निज तन की अर घर कुटंब की


१पुराणे।
२(जदोण) भुख तेह बहुत वधे।
३तदोण देह दे निरबाह वासते कुछ (अहार) करन।
४कपड़े पहिनं दी होश (आप ळ) हुंदी नहीण (ते होर) कौं लवे खबर।
(अ) कपड़े पहिनं दी सुध बुध (खबर लैंी) कौं करे, (आप ळ तां) है ही नहीण (लोड़ कपड़े
दी)।
*श्री भज़टां ने सवईआण विच लिखिआ है,
तीस इकु अरु पंजि सिधु पैतीस नखींअु
अरथात गुरू अमरदेव जी ३०+१+५+३५ = ७१ वरहे दी अुमर विच आए सन सेवा
विच, १ वरहा बीत गिआ है हुण, ऐअुण ७२ हुंदे हन।
५अुज़दम।

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