Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) १८२
२१. ।प्रिथी चंद पासोण चिज़ठीआण निकलीआण॥
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दोहरा: श्री अरजन सनमान जुति, अति समीपता पाइ।
बैठे शोभति पिता सोण, गान अनणद के भाइ१ ॥१॥
चौपई: प्रिथीआ देखि दूर ते जरियो।
-इतो निकट थित है करि थिरियो।
पिता गुरू को अदब न राखो।
बैठो जनु समता अभिलाखो२ ॥२॥
इम ढिग है लोकनि दिखरावै।
सिज़खन मैण* निज मान बधावै-।
जरति आइ पित को करि नमो।
बैठो कितिक दूर तहि समो ॥३॥
श्री अरजन लखि करि बड भ्रात।बैठे रहे निकट गुर तात३।
हाथ जोरि बंदन को ठानी।
आशिख दे४ प्रिथीए ने मानी ॥४॥
श्री गुर देखो पुज़त्र बिलद।
कहो प्रिथी चंद सुनि मतिवंद!
दोइ पज़त्रिका पूरब आई।
श्री अरजन तुक शबद बनाई ॥५॥
सिख नो दई सौणप करि तोहि।
सो अबि तेरे ही ढिग होहि।
हमरे तीर न आनि दिखाई।
कौन हेतु ते राखि छुपाई? ॥६॥
आनहुण अबि तिन को जहिण धरी।
अवलोकहिण कैसी बिधि करी।
सुनि बलो बच जो छल साने।
कबि इन पठी, कहां को जाने? ॥७॥
१भाव जिवेण गान ते अनद मिले बैठे होण।
२मानोण बराबरी दा चाहवान है।
*पा:-मन।
३गुरू पिता जी दे नेड़े।
४असीस देके।