Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) १८२
२४. ।औरंगग़ेब दा वेशवा ते सूफी फकीराण नाल सलूक॥
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दोहरा: इस प्रकार औरंग ने, हते पिता अरु भ्रात।
दुशट, पापकरमा महां, बहु लोकनि दुख दात ॥१॥
चौपई: -शरा बीच सभि जगत चलावहु।जो नहि मानै तिसै मरवाहु-।
अस संकलप कीनि द्रिड़्ह मन मैण।
अति बादी तुरकनि के गन मैण ॥२॥
हठ करता जिद मे जु महाने।
जिनहु माइने अरबी जाने।
बीच पारसी निपुन सुजाने।
अस राखे बहु निकटि मुलाने ॥३॥
आदर दरब देइ बहु तेरा।
तिन की संगति करति घनेरा।
परमेशर प्रापति मग अंधे१।
गाढे शर्हा फास संग बंधे ॥४॥
अंधनि साथ अंध मिलि जैसे।
गान रूप को होहि न कैसे२।
तथा शर्हा सभि अंधे करे।
मग ुदाइ कोण द्रिशटी परे ॥५॥
रिदे नुरंगे कीनि बिचार।
-बेशा ब्रिंद बग़ार मझार।
सभि हराम करि बैस बितावैण।
शर्हा बीच ए नहि द्रिशटावैण- ॥६॥
सगरी करि कै हुकम हकारी।
आई ब्रिज़ध, तरुन अरु बारी३।
कहो कार अपनी दिहु तागि।
इक इक खसम संग लिहु लाग ॥७॥
नांहि त दोग़क मैण दुख पावअु।
१परमेशुर दी प्रापती दे राह तोण अंन्हे।
२अंन्हे ळ रूप दा गिआन किसे तर्हां नहीण हुंदा।३बालकीआण।