Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) १८३
२३. ।रतन राइ दीआण अुपहाराण॥
२२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>२४
दोहरा: निसा बिताइ प्रभाति भी, ठाने सौच शनान।
गुर दरबार लगाइ करि, बैठे मुदत सुजान ॥१॥
चौपई: पठो मेवड़ा न्रिप बुलवायो।
मुदतिसचिव जुति चलि करि आयो।
करि बंदन बैठो प्रभु तीर।
खड़ग सिपर जुति शुभिति शरीर ॥२॥
प्रथमै चौकी सो मंगवाई।
दाबी कल पुतली निकसाई।
चौपर कौ बिछाइ करि दीनि।
डल गेरति खेलति लखि लीनि ॥३॥
पंचकाला पुन शसत्र मंगायो।
कसो तमांचा प्रथम चलायो।
बडो शबद भा तोड़१ घनेरा।
-हतहि शज़त्र नीके- गुर हेरा ॥४॥
पुन कल दाबे भयो क्रिपान।
तीखन धारा दिखो महांन।
गहि कबग़ा कर महि प्रभु तबै।
इत अुत करि देखो शुभ तबै ॥५॥
पुन बरछी करि कै दिखराई।
तीखन अनी घनी रिपु घाई।
पुन जमधर को तिस ते करो।
सुंदर परे२ हाथ महि धरो ॥६॥
खर धारा अरु अनी महाने।
शज़त्र अुदर को धसि करि हाने।
पटेदार३ पुन गुरज बनाई।
लगहि सीस पुन बचनि न पाई ॥७॥
सभि कल परखति हरखति नाथ।
१जद तोड़ा लाइआ।
२सुहणी लगदी है।
३तलवार दी मुज़ठ वरगी मुज़ठ वाला। ।इक होर गुरज हेठोण नोकदार हुंदाहै॥ (अ) फाड़ीदार
गुलिआई वाला।