Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) १८२

श्री मुख सभिनि सुनाइ बखाना।
सुनहु खालसा बनु सवधाना ॥३३॥
तनहु कनात चुगिरदे भले।
जिस ते दूर हुइ नर खले।
सभि चंदन ईणधन तिस मांही।
पहुचहु लेह चिता रचि तांही ॥३४॥
प्रथम भू कौ लेपहु सारे।
तिस पर कुशा देहु बिसतारे।
चंदन चिता रचहु तहि फेर।
जव तिल घ्रित आदिक विच गेरि ॥३५॥शौरभि१ धरहु सकल तहि जाई।
कीजहि तारी बिलम बिहाई।
शौच शनान सरब हम कीनि।
पोशिश नई पहिर तन लीन ॥३६॥
नहि बाणछो तुम अपर करन को२।
बसत्र पहिर किय शसत्र धरन को।
इही रहैणगे संग हमारे।
भली भांति सभि अंगीकारे ॥३७॥
सुनि आइसु को सिंघ सिधारे।
तनी कनात चुगिरदे सारे।
गाडी करि गाढी गन मेख३।
डोरैण बंधन कीनि अशेख ॥३८॥
लेपन करि अंतर को थाए।
चंदन को अुचाइ करि लाए।
गन ईणधन ते चिखा महानी।
रची भली बिधि दिढ बहु ठानी४ ॥३९॥
जलित हुतासन परहि न गिरि कै।
इस प्रकार रचि काशट धरि कै।


१सुगंधीआण।
२होर कुछ नां करो।
३सारीआण मेखां डूंघीआण करके गज़डीआण।
४बहुत पज़की कीती।

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