Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १८७

गुर अनुराग धरे रंग लाल ॥१६॥
त्रिती बरख महिण श्री गुर अंगद
त्रिती डेढ गज दीनहु चीर।
नहिण बोलहिण तिह संगु कबहि कछु
बैठहिण दूर कि होवहिण तीर।
हाथ चरन जुग भए बिबरने१
फटे मास लागे जल सीर।
तअू न मन महिण फुरै और बिधि
इक सेवा के ततपर धीर२ ॥१७॥
जाम जामनी जागहिण, आनहिण
जल को कलस, कराइ शनान।
चरन पखारहिण, बसत्र पखारहिण,
पुन परमेशुर सिमरन ठानि।
बहुत देग हित नीर घटा भरि
चहीअहि जितिक तितक देण आनि।
समधा३ आनहिण, जारनि ठानहिण,
पुन पंकति जुत करिहीण खान ॥१८॥
पात्र सुधारहिण४ सतिगुर के सभि,
गरमी बिखै सु हांकहिण+ पौन।
जबि जल पान करहिण ले आवहिण,
सेज सुधारहिण हित गुर सौन।
चरन अंगूठे महि ब्रिं५ पाको++१होर रंग दे।
२धीरज धारके।
३लकड़ीआण।
४भांडे मांजं।
+पा-हांक है।
५फोड़ा।
++इह गज़ल कि श्री गुरू अंगद देव जी दे चरनां विच फोड़ा सी, अुन्हां दे गज़दी पर बैठं दे
विरोधी निदकाण दी टोरी होई निदा है, जिस ळ नावाकफ पर प्रेमाधीन सिज़खां ने सुहणे अरथां विच
लाअुण दा जतन कीता है। भाई गुरदास ने इह गज़ल नहीण लिखी महिणमा प्रकाश विच जो श्री गु:
प्र: सू: ग्रंथ तोण तीह बरस तोण वधीक पहिलोण दा ग्रंथ है इह वारता नहीण दिज़ती, नां ही भज़टां ने
सवईआण विच ग़िकर कीता है। बलकि इह गल प्रसिज़ध है कि सवेरे जिस रोगी अुते अुहनां दी
नग़र पैणदी सी अुह अरोग हो जाणदा सी।

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