Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) १८५
२४. ।जहांगीर कशमीर ळ॥
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दोहरा: नित प्रताप अरु सुजसु को, सुनि सुनि प्रिथीआ कान।बहुत बिसूरति दुखति है, रुचहि न भोजन खान ॥१॥
सैया छंद: सुजस गुरू को घ्रित सम जानहु
प्रिथीआ जरै हुतासनि होइ।
गुर कीरति बरखा जिम पावस
रिदा जवासो जर जर खोइ१।
चिंता सलिता करहि बधावहि
बहो जाति मन थिरहि न कोइ।
संकट नीर वधहि नित प्रति ही
तट निचिंत नहि पावति सोइ ॥२॥
हेरि हेरि पति को मुख करमो
धीरज देति न करीअहि चिंत।
तन को भज़खति है२ निस दिन महि
अति दुरबलता तुमहि करंति।
रुचि सोण खान पान नहि करते
अुर को हरख महां नित हंति३।
चिंता सम बैरी नहि दूसर
अंतर बरि कै दुख बरधंति४ ॥३॥
जतन अनेक करहु जुति अुज़दम,
मिज़त्र न को अुतसाहु समान५।
सुलही हुतो सहाइक मरिगा,
अबि चंदू बड शाहु दिवान।
मुलाकात करिमसलत ठानी
तिस को पुशट करहु हित ठानि।
अुतसाही नर चहै सु करि है,
१गुराण दी कीरती है जिवे बरखा बरसात दी ते हिरदा (अुसदा) जवाहे वाणग सड़के जड़्ह ळ गुवाणदा
है या सड़ सड़ के नाश हुंदा है।
२खांदी है (चिंता)।
३नाश करदी है।
४दुज़ख वधाअुणदी है (चिंता)।
५अुतशाह वरगा (होर) कोई मिज़त्र नहीण।