Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १८९
इक दिन श्री अंगद जी सोए
चरन अंगूठ लीन मुख धारि।
राणध+ रुधिर जो होइ इकज़त्रै
मुख ते थूक देति छिति डारि।
पुन आनन महिण धारहिण सुख हित
पाइण न संकट गुरू अुदारि।
बैठे बीतो एक जामि जबि
हिरदै महिण तबि कीन बिचारि ॥२२॥
-मो महिण शकति काम किस आवहि
गुर शरीर ते जे दुख पाइण।
करोण अरोग जु ब्रिं इह सूकहि
सरब प्रकार तबहि सुख आइ-।
इमि बिचारि करि अपन शकति ते
सगरो रोग दीन बिनसाइ।
भए अरोग अंग सभि सुधरे
देखति बिसमति हुइ हरखाइ ॥२३॥
श्री अंगद जी जाग पिखो तन
चरण अंगूठेमहिण ब्रिं नांहि।
अपर सरीर अरोग भयो सभि
बहुर बिलोको बैठो पाहि।
रिदे बिचारो -का इहु होयहु
सुपत१ जाम इक२, रोग बिलाहि३-।
पुन जानो -श्री अमर कीन इमि
कुछक शकति होई इन मांही- ॥२४॥
सुनि पुरखा! तैण का इहु कीनसि?
जरा४ शकति भी जरी न जाइ।
तीन लोक पति श्री गुर नानक
इस तन को तिन सीस निवाइ।
+पा:-गंध।
१सुतिआण।
२इक पहिर (विच)।
३रोग दूर हो गिआ।
४थोड़ी।