Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) १८७
२४. ।इक सिज़ख ने पारस भेटा कीता॥
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दोहरा: सुनि करि बिनै जु मैण कही, क्रिपा निधान सुजान।
देनि लगे पुन अंन को, परखे सिंघ महान ॥१॥
चौपई: दे करि कशट शुज़ध अुर करे।
अुचित महां सुख को अुर धरे।
त्रिपति भए सभि पाइ अहारा।
गज बाजीनि दीनि तबि चारा ॥२॥
जे मरि गए गुरू पुरि बसे।
जीवति लरति फिरति कटकसे।
केतिक दिवस बिते सुख पाई।
किसू देश ते संगति आई ॥३॥
घेरा हेरि ठठक हिय रहे।
जतन रचहि -किम गुरमुखि लहे१-।
घात पाइ किस हूं धन दीनो।
अंतरि जाइ प्रवेशन कीनो ॥४॥
सतिगुर को दरशन सुखु पाइ।
भांति भांति की भेट चढाइ।
एक सिज़ख तिन महि गुनवंता।
पारस पास छुपाइ रखंता ॥५॥
तुरक आदि जे अपर नरेशा।
तिन ते धारहि त्रास विशेखा।
देखि दसा तहि सिंघनि केरी।
निखुटी सकल वसतु इस बेरी ॥६॥
-सभि ही कशट पाइ करि रहे।
मन भावति भोजन नहि लहे।
इह पारस मैण गुर को दै कै।
दारिद सकल बिनाशी कै कै ॥७॥
सुख सो लहैण महां फल एह२।
प्रभू प्रसंन होइ जबि लेहि-।
१किवेण गुराण दे मुख दा दरशन करीए।
२सुख नाल लैंगे (वसतूआण ळ सिंघ) इस दा बड़ा फल होवेगा।