Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९१

किस महिण समरथ जान सकहि को
सुर नर बिसमति सुमति बडेर++ ॥२८॥
बरख इकादश सेवा कीनसि
दिए रुमाल इकादश पानि।
सो सगरे सिर पर करि बाणधनि
रसरी१ संग सु द्रिड़ता ठानि।
बडो मुकट तिन को तब होयहु
दिनप्रति भीगहि नीर महान।
बहु पपीलका२ बासा कीनस
अपर जीव अुपजे तिस थान* ॥२९॥
जबि के दए सीस पर बाणधे
बहुर न तरे अुतारनि कीनि।
करति रहति दिन प्रति द्रिड़ तिन को
रैन दिवस मन प्रेम प्रबीनि।
अपर बासना रही न कोअू
चरन कमल सिमरति हुइ लीन।
कहनि सुनन किह सोण न+ करहिण कबि,
इक सेवा के ततपर भीनि३ ॥३०॥
बरख दादशो सेवति आयहु
जीरण चीर सरीर सु छादि४।
पग महिण भई बिवाई५ फट करि,
खान पान को चहै न सादि।
जल सोण भीज हात तिस बिधि भे,


++पा:-घनेर।
१रज़सी।
२कीड़ीआण।
*हर साल डेढ गज रुमाल ते किरम चज़लं दी साखी महिणमां प्रकाश विच है, ओथे लिखिआ है कि
बाराण बरस ओही बसतर वरतदे रहे जो पहिने सेवा विच आए से। इह किरम चलं वाली गज़ल
बी अुन्हां ही निदक लोकाण दी चलाई होई जापदी है। भज़टां ने सवईआण विच तीसरे सतिगुराण दी
सेवा दा ग़िकर कीता है, पर इह बात सपशट या इशारे नाल बी नहीण दिज़ती है।
+पा:-स्रोन।
३भिज़जे होए।
४ढकिआ है।
५बिआई।

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