Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९३
टुकरे खान रहो परि कै इह,
सभि ने तागो भयो निरास ॥३४॥
फिरहि निथावाण थांव न पावहि,
अहै निमाना मान न काइ।
रैनि दिवस इत अुत को बिचरति
सभि के आगै सेव कमाइ।
इक अहार को अचवन करिही
अवर वसतु किछु हाथ न आइ।
सभि को कहो करै अुड डरपति
नहीण निकास देहिण इस थाइण- ॥३५॥
इमि निदक अुपहास जुकति बहु
निदहिण, बिंदहिण नहीण गवार१।
दीन दुनी का पातशाह हुइ
जिस के सम को है न अुदार।
सिज़खन अरु निदक तेसुनि करि
हरख न शोक करहिण किस बारि।
इज़क सेव के ततपर है करि
गुरू अराधहिण सरब प्रकार* ॥३६॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे श्री अमर सेवा प्रसंग
बरनन नाम खोड़समो अंसू ॥१६॥
१ठठे नाल निददे हन ते गवार नहीण जाणदे।
*श्री पावन अमरदास जी घाल ते गुरू साहिब जी दी दिस रही बेपरवाही तोण प्रशन अुठ खड़ोणदे
हन कि किअुण बेपरवाही है? कीह इस सेवा मात्र ने श्री अमरदास जी ळ गुरू बनाअुणा है? की
गुरू अंगद जी दा इस सेवा नाल कुछ संवरदा है? अुज़तर इह है कि गुरू जी बेपरवाह नहीण
हन। ओह श्री अमरदास जी ळ महान अुज़च पदवी लई तिआर कर रहे हन। श्री अमर दास जी
धुरोण गुरू हन, चरनां विच पदम दा होणां दज़सके कवि जी इह गज़ल सूचत कर आए हन। गज़ल
इह है कि जगत विच झूठे गुरू ते झूठे सिज़खां दी परपाटी ने सज़च ते असलीअत गुंम कर दिज़ती
सी, सज़चे गुरू दा आदरश ते सज़चे सिज़ख दा आदरश करके दिखाअुणा सी, इस लई श्री अमर दास
जी वाहिगुरू जी परम कौतकी वलोण सिज़खी दे नाट विच रखे गए सन। पहिलां नेक तबीयत धरम
दा झुकाअु, भगती दी पिआस विच तीरथ परसन, फेरगुरू दी पास, फिर सेवा दी अवधी करके
अुन्हां ने जगासा ते सिखी दी सरब आपा ताग मिसाल कायम कीती, फेर जो कुछ सन अरथात
गुरू, सो होके फिर गुरिआई दा आदरश दिखाया ते गुरू पद दी कार पूरी पूरी निबाही।