Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ३१
२. ।कलहा आगमन॥
१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>३
दोहरा: एक समेण एकलि गुरू, बैठे अंतरि भौन।
थिर प्रयंक पर हरख अुर, नहीण समीपी कौन१ ॥१॥
चौपई: सकल जोगनी को सिरदार।
जिसि को रूप महां बिकरार।
कलहा२ नाम शाम तनु धारा।
दीरघ दांत तुंड बिसथारा३ ॥२॥
ब्रिंद जोगनी जाण केसंगि।
दारुन बने जिनहु के अंग।
लाल बाल छुटि बडे पिछारी४।
सूके चरम दिखहि गन नारी५ ॥३॥
लाल बिलोचन श्रोंित सरसे।
खज़पर धरे खोपरी कर से६।
हाडनि माल बिसाल कराला।
जीरण चीर मलीन कुढाला७ ॥४॥
आनि भई गुरु आगे ठांढी।
रुध्र मास पासा छुधि बाढी८।
जीह दीह सोण ओशट चाटति९।
जिह पिख कातुर के अुर फाटति१० ॥५॥
नमो करी गुरु बूझन कीनी।
कौन अहैण तूं लाज बिहीनी?
संकट बड अकार के* धारा?
१पास कोई बी नहीण सी।
२कलहा ळ नारद दी इसत्री मंनदे हन।
३मूंह अज़डिआ।
४लाल (रंग दे) वाल खुज़ले पिज़छे छज़डे होए।
५समूह नाड़ां पईआण दिसदीआण हन। (अ) सारीआण इसत्रीआण दे सुके चंम दीहदे हन।
६खोपरीआण दे खज़पर हज़थ विच धरे।
७बुरी तर्हां दे।
८लहू ते मास दी त्रेह भुख वधी (होई सी जिन्हां दी)
९वडी जबान नाल बुज़ल्ह चज़टदीआण।
१०काइराण दे हिरदे फटदे सन।
*पा:-के।