Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९५

-मज़जन को नहिण बिलमु हुइ, गुर दिश- अभिलाखो।
परी जुलाही सदन महिण, अरु हुतो जुलाहा।
भयो खड़क सुनि कै शबद, बाहर को आहा? ॥७॥
गिरो कौन इस थल बिखै, तसकर है कोअू?
किधौण अपर मानव अहै? अुज़तर दिहु सोअू।सुनयो जुलाहे को भनयो, श्री अमर बतायो।
मैण सतिगुर को दास हौण, लैबे जल आयो ॥८॥
कौन दास इस काल महिण, पाला अंधकारा।
बूंदां बरखति, घन घटा अवनी पर गारा१।
सुनति जुलाही ने भनो, और न अस कोअू।
निरथावाण अमरू फिरहि, इस छिन है सोअू ॥९॥
निस दिन इस को चैन नहिण, इत अुत नित डोलै।
खाइ पेट नित* भरति है, किह सोण नहिण बोलै।
कुल ग्रहि तजि अुपहास सहि२, रहि तपे नजीका।
जग की लाज न कछु करहि, कहि बुरा कि नीका ॥१०॥
सुनि बोले श्री अमर जी, मैण नहीण निथावाण।
सेवो सतिगुर सभि बडो, शुभ शुभति सुभावा३।
तूं कमली हुइ कहति हैण, बुधि रिदै न कोई।
नहीण महातम को लखो, दाता जग जोई ॥११॥
इमि कहि सिर पर कलस ले, आए निज थाना।
आगे श्री अंगद गुरू, चहिण करो शनाना।
चौकी पर तब खरे थे, सुनि श्रौन ब्रितंता।
अति ध्रित४ जानी दास महिण, चाहति परखंता ॥१२॥
आयो निकट, बताइ नहिण, लगि सेव सुजाना।
चरन पखारे सौच जुति, करवाइ शनाना।भई जुलाही बावरी५, तिन के बच भाखे।
दांतन काटति, मुख बकहि, अुर जिमु अभिलाखे ॥१३॥


१ग़िमीण अुते चिकड़ है।
*पा:-इक।
२हासी, ठठा सहार के।
३सभ तोण वज़डा, नेक ते शोभा वाले सुभाव वाला।
४धीरज।
५कमली।

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