Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) १९३
२७. ।श्री हरिराइ बैकुंठ गमन॥
२६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगलाअंसू>>२८
दोहरा: ब्रिध के बंस सपुज़त्र जो, झंडा नाम सगान१।
निज सुत गुरदिज़ता लिए, सुनति कथा सुख मानि ॥१॥
चौपई: सकल देश के धनी मसंद।
सभि इकठे बिच सभा बिलद।
लिखे हुकम नावेण जहि जहां।
सुनि सुनि आनि पहूचे तहां ॥२॥
ब्रिंद संगतां आनी संग।
दरशन हित चित धरेण अुमंग।
सुनहि गुरू के बाक सुहाए।
धरहि रिदे महि, सुख अुपजाए ॥३॥
जिन के हैण पूरब बडभाग।
सो रंगे गुर के अनुराग।
कीरत पुरि महि भीर बिसाला।
दीरघ देग बनहि जुग काला ॥४॥
अनिक प्रकार अहार बनते।
सकल अचहि मिलि मन भावंते२।
केतिक दोस बास तहि कीनि।
गुर के प्रेम बिखै हुइ लीन ॥५॥
अपर जहां कहि सिज़ख मसंद।
सुनहि मेल चलि आइ अनद।
डेरे परे पुरहि चौफेर।
दरशन दिन महि देण इक बेर ॥६॥
जिस ते हुइ सिज़खनि कज़लान।
अुपदेशहि गुर करति बखान।
जहि कहि होइ रहो जैकार।
वाहु वाहु गुर करहि अुचार ॥७॥
करहि बिचारनि -का गुर मरग़ी।किय संगति इकठी हुइ रग़ी।
१गानवान, गिआनी।
२मन भांवदे।