Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) १९२
२१. ।सोना इकज़त्र करवाया॥
२०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>२२
दोहरा: छुटी मसंदन ते सकल, संगति देश बिदेश।
अधिक भई सिज़खी जगत, शरधा सहित विशेश ॥१॥
चौपई: आप कार संगति लै आवै।
भांति भांति की भेट चड़्हावै।
अन गन धन भूखन अरपंते।
बहुत मोल के बसत्र सुभंते ॥२॥
ग़री बादला के बड थान।लाइ रेशमी रंगु महान१।
अनिक रीति* के मसरू२ आवैण।
पशमंबर कशमीरी लावैण ॥३॥
खीनखाब के थान घनेरे।
सूखम अंबर मोल बडेरे।
जिस जिस देश वसतु शुभ होइ।
करहि प्रेम सिख, आनहि सोइ ॥४॥
युति मिरयादा पूजा करैण।
अरपि अरपि करि अुर मुद भरैण।
वासी वासी के इक थाइ३।
सहित४ तिहावल दे बनाइ ॥५॥
निज निज डेरे भजन करंते।
सिज़खन सोण सिज़ख प्रेम धरंते।
मिलि मिलि अुपजति अधिक अनद।
जिम भ्राता संगु भ्राता५ ब्रिंद ॥६॥
भयो खालसा शसत्रनि धारी।
पूजा मेले पर हुइ भारी।
१सुहणे रंगां दे।
*पा:-रंग।
२इक रेशमी कपड़ा धारीदार ।अ:, मशरूअ=रेशम ते सूत दा मिला के बणिआ कपड़ा जिस ळ
पहिने होए मुसलमान ळ निमाग़ पड़्हनी जाइग़ है॥।
३नगर नगर दे इक थां हो करके।
४प्रेम नाल।
५जिवेण भरा ळ भरा मिले।