Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९६

भई प्रभाती निस बिती, सतिगुर सभि जानो।
अमरदास निज पास तबि, बुलिवावन ठानो।
आनि करी पद बंदना, कर जोरि सु ठांढे।
अवलोकति हैण दरस को, अनुराग सु बाढे ॥१४॥
कहु ब्रितांत सभि राति को, कैसे करि होई?
लावति जल को कलस जब, बोलो किम कोई?
हाथ बंदि बिनती भनी तुम अंतरजामी।
बिना कहे जानो सकल, दाता जग सामी ॥१५॥
कुछ दुराअु१ नहिण आप ते, जे सभि किछु जाने।
मैण डरपौण को अपर बिधि२, नहिण जाइ बखाने।
सुनि कै श्री अंगद तबै, बुलवाइ जुलाहा।
जुकति जुलाही३ आइ सो, थित भा गुर पाहा४ ॥१६॥
दरशन कीने सुधि५ भई, सम प्रथम जुलाही६।
श्री अंगद बूझो तबै सच कहुहम पाही।
निस ब्रितांत किस बिधि भयो, सभि देहु सुनाई।
दीन दुनी दुख पाइण हैण, जे राखि दुराई ॥१७॥
सुनति जुलाहे भै धरो, -इनके बच साचे।
कहौण न मैण दुख पाइ हौण-, इम लखि सचु राचे७।
बूझो मैण -का खड़क भा, बाहर इस काला?-।
मम दारा जागति हुती, तिन कीन संभाला८ ॥१८॥
बोली सुनि मन परखि कै, -इह अमरु निथावाण-।
दास तुमारे -बावरी-, तबि बाक अलावा।
दरशन देखे सुधि भई, अब रावरि पासी।
बचन फुरहि सभि कहैण जिम, सुनि हम मति त्रासी९ ॥१९॥
पुन गुर बूझो श्री अमर, ऐसे बिधि होई?

१छिपाअु।
२होर तर्हां।
३संे जुलाही।
४पास।
५होश।
६जुलाही ळ पहिले वाणगू।
७इअुण समझके सज़च विच रचिआ भाव सज़च बोलिआ।
८होश, सोझी।
९बुज़धी डरी।

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