Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) १९७
हाथ जोरि करि अरग़ बखानी१+ ॥४२॥
श्री सतिगुर कीजहि इत डेरा।
जानहु भले कदीमी चेरा।
सुनि कै श्री मुख ते फुरमाइ।
अुतरैण भागू ग्राम सु जाइ ॥४३॥
लखो ब्रिज़ध बहु बिनै बखानी।
तार करी मैण देग महांनी।
भोजन अचहु करहु बरतावन।
पावनि पावनि करि घर पावन२ ॥४४॥
पुन गुर भनोण न अुतरन बनै।
गमनैण पंथ घाम है घनै३।
इम कहि अज़ग्र पयानो कीन।
दाल दास ते लीनि न४ दीन ॥४५॥
राम सिंघ तिह संग अुबाचा।
अबि अुपचारकरहु इम चाचा।
सकल अहार तिहावल जोइ।
अूपर सकट लाद लिहु सोइ ॥४६॥
गमनहु संग प्रसंनता धरैण।
लेहि दे बंटनि को करैण।
गुरू बिरुख तुम सोण लखि महां।
बखशैण हैण चलीअहि जहि कहां ॥४७॥
इम सुनि कै तिन सकट लदायो।
करि कै तार संग चलिवायो।
आगै गमन कीनि सुख धामू।
डेरा कीयसि सभा ग्रामू ॥४८॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज गिं्रथे प्रथम ऐने बठिडे गमन प्रसंग
बरनन नाम तीन बिंसती अंसू ॥२३॥
१बुज़ढे ने गज़ल समझ लई (फिर बी) बहुत बेनती कीती। (अ) (दाल दास ने) बहुत बेनती कीती
(मैण) बुज़ढे वज़ल तज़को।
+साखी पोथी विच लिखिआ है कि इथे दाल दास ने बिनै कीती कि अंम्रित छकाओ।
२चरन पाके घर पविज़त्र करो।
३(हुण) राह चलदे हां (फेर) बहुती धुज़प हो जावेगी।
४ना (प्रशाद) लिआ ना (अंम्रत) दिज़ता (भाव छकाइआ)।