Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) १९६

गुर संग गए न सरीर बिहाई१ ॥३१॥
पेखहु प्रीति पतंगन की
छिन मैण तन देति बिलोकि प्रकाशा।
नाद सुने अहिलाद रिदै
करि है विसमाद ते एंु२ बिनासा३।
एक सुगंधि ते अंध मधू
ब्रिति छोरति नांहि प्रमोद* महि फासा४।
मीन रहै जल ते सुच सोण,
बिछरे मरि जाति, सु प्रेम अुपासा५ ॥३२॥
का इह जंतु मलीन महां,
करि प्रेम को देति हैण आपने प्राना।
है हमरो तन मानुख को
सभि जानति हैण मन लाभ रु हाना।
श्री गुर प्रीति सदा सुखदा
दुहिलोकन मैण करती सु कलाना।
सो हम जानि महातम को
निरबाहि न कीन६ भए अनुजाना ॥३३॥
पाहन ते निठरो हमरो
अुर प्रीतम केर बियोग सहारा।
जाणहि बिनां सुख लेश नहीण
दुहि लोकन कौ प्रभु मालिक भारा।
तां बिन बैठि रहे बनि दीन,
गए नहि साथ जु नाथ अुदारा।
भूर बिसूरति हैण बन मूरति७


१सरीर छज़डके नाल ना गए।
२हरन।
३म्रिग (आपणा आप) नाश करदा है।
*पा:-प्रदेश।
४इक सुगंधी दे नाल अंन्हा होइआ (भाव प्रेमी) भौरा प्रमोद विच आके (कवल फुज़ल दे रात ळ
मिटीणदे जाण दी) लपेट विच आइआ (अुस ळ) छज़डदा नहीण सगोण फस जाणदा है। ।संस:,
प्रमोद=खुशी। ब्रिति=घेरा। लपेट॥।
५प्रेम दी अुपासना ऐसे है। (अ) ऐसा विशेश प्रेम अुस पास है। ।अु=विशेश। पासा=पास है॥।
६प्रेम दा निरबाह ना कीता।
७मूरतीआण बणके।

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