Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) १९८
२५. ।घर विच विचार। रणजीत नगारा॥
२४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>२६
दोहरा: अुठे प्राति को सतिगुरू,
ठाने सौच शनान।
प्रथम गए माता निकट,
बैठे बंदन ठानि ॥१॥
चौपई: दे आशिख को प्रेम करंती।
पिखि सपूत को अुर हरखंती।
हित समुझावनि कहि म्रिदु बानी।
इक पुज़त्रा मन प्रीति महानी ॥२॥
जिन बैठे भी बड बडिआई।
गुरता गादी अधिक सुहाई।
सुनीअहि सुत! ऐसे नहि करो।
जिस ते सैलपतिनि सोण लरो ॥३॥
राखी सैन न अचरज कोई।
करहु अखेर जथा मन होई।
तुम जग पूज बिरोध न करीअहि।चहुदिशि संगति अपनि बिचरीअहि ॥४॥
मैण अबि सुनोण बनाइ नगारा।
चहति बजायहु सैन मझारा।
इस ते औचक अुठहि अुपज़द्रव।
बसहु शांति जुति* तीर सतुज़द्रव ॥५॥
नहि आछो जो परहि बखेरा।
वधति वधति हुइ कशट बडेरा।
बडे गुरनि१ जबि जंग मचाए।
तागि सुधासर को निकसाए ॥६॥
पातशाह महिपाल अशेश।
राज तिनहु ढिग देश विशेश।
करिबे को समरथ सभि भांती।
कोइ मीत को बनहि अराती ॥७॥
*पा:-सुत।
१भाव छेवेण पातशाह जी ने।