Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) १९९
२२. ।थान साड़ने ने खग़ाना सतलुज विज़च॥
२१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>२३
दोहरा: सिख संगति को बरस महि, केतिक छठवैण मास।
आवहि अपरहि पाइ फल, होति बिसाल प्रकाश ॥१॥
चौपई: धन अन- गनत चलो नित आवहि।कुछ गिनती किस को नहि पावहि।
इक दिन बैठे गुरू क्रिपाला।
लीला अचरज करहि बिसाला* ॥२॥
दासनि सोण इक हुकम बखाना।
सकल निकासहु तोशेखाना।
आनि आनि करि धरहु अगारी।
बहु लगु जाहु१ न करहु अवारी ॥३॥
सुनि आगा को करति निकासे।
ग़री बाफता मलमल खासे।
तास२ बादला३ चमकति घने।
खीनखाब ग़र बूटे सने४ ॥४॥
भार अुठावति ले ले आवहि।
श्री सतिगुर के अज़ग्र टिकावहि।
बसत्रनि जाति अनेक प्रकारो।
सभि देशनि ते लाइ हग़ारोण ॥५॥
सो सगरे बाहर निकसाए।
जुदे जुदे करि गुरू दिखाए।
अनिक जाति के सुंदर घने।
चहुदिशि ते आए ग़रि सने५ ॥६॥
जिन के देखति होति हुलास।
मनहु देति करि अधिक प्रकाश६।
*पा:-क्रिपाला।
१बहुते लग पवो।
२तिज़ले दा कपड़ा ।हिंदी, ताश॥।
३ग़रबफत दी किसम दा कपड़ा रेशम ते सोने चांदी दीआण ताराण नाल अुणिआ।
४ग़री दे बूटिआण समेत।
५ग़री दे नाल (कज़ढे होए)।
६बहुत चानंा (अ) जद चमकदेहन मानो किरनां छुटदीआण हन।