Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) २००
२३. ।प्रिथीए नाल झगड़ा। श्री गुरू रामदास जी ने गोइंदवाल जाणा॥
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दोहरा: सुनति पिता के बचन को, प्रिथीआ अति हंकार।
महां क्रोध को धारि कै, सनमुख कीन अुचार ॥१॥
चौपई: सेवा भली करति हो परखन।
बैठो लवपुरि महिण दै बरखनि।तुमरी सुधि अरु नहीण सदन की।
आवति जाति नहीण सुध धन की ॥२॥
बैठो रहो निचिंत सुखारो।
कौन काज तहिण रहति सुवारो।
मैण सगरे घर की बड कार।
संगति आवनि जानि हग़ार ॥३॥
किस को देनि किसू ते लेना।
राखन सभि को सदा सुखेना।
नितप्रति करति रहोण मैण आछे१।
सभि प्रसंन हुइ मुझ ते गाछे२ ॥४॥
अखिल मसंदन ते सभि कार।
रहो संभारति सरब प्रकार।
दे करन की कार चलाई।
इज़तादिक मैण सेव कमाई ॥५॥
तुम ते आदि सरब परवारे।
कारि किनहुण नहिण कोइ संभारे।
सुधि भी कबहुण न लीनसि कोई।
मो ते होति सरब बिधि सोई ॥६॥
इम कहि कटक बाक पुन भाखे।
जिन महिण बचन* अनादर राखे।
लिखे न जाइण मोहि ते सोइ।
महां कठोर अनुचितै जोइ ॥७॥
छिमा निधान बिरद लखि आपनि।
१चंगी तर्हां।
२जाणदे सन।
*पा:-बरन।