Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २०५

बडो भ्रात नहिण जाइ तिहारो।
मान बाक अब तुहीण पधारो ॥२५॥
खज़त्री बिनती करति अुचारी।
अुठि अबि जाहु बनहु अुपकारी।
सभि भूतन को त्रास१ दिखाइ।
निरअुपाधि करि ग्राम बसाइ ॥२६॥
सुनहु पिता जी! बसहिण खडूर।
तहां जानि की कौन ग़रूर।
बैसे सदन गुबिंद गुन गावैण।
निज कारज हित बहु चलि आवैण२ ॥२७॥
किस किस संग आप चलि जावौ।
का हम को? अुजरो कि बसावो३।
सुनि सुत दोइन ते इमि बैन।
अमरदास की दिश करि नैन ॥२८॥
कहो जाहु पुरखा तुम तहां।
बासा भूत प्रेत को जहां।
करहु बसावनिसुंदर पुरी४।
जनु गुर कीरति की हुइ पुरी५ ॥२९॥
मुख ते अज़खर निकसे आधे।
सुनि तिआर होयहु कट बाणधे६।
हाथ जोरि बूझी बिधि कैसे।
जस आइसु हुइ रचि पुरि७ तैसे ॥३०॥
कहो गुरू पूरब दिश जोई।
करहु खनावनि८ नीके सोई।
इक सम करि कै थान तहां सु।


१डर।
२आपणे कंमां लई बथेरे लोकीण आअुणदे हन।
३साळ की कोई अुजड़े कोई वज़से।
४शहिर।
५गुर कीरती दा धाम।
६लक बंन्ह के।
७मैण रचां शहिर।
८पुज़टंा।

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