Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) २०५
२६. ।रणजीत नगारा वज़जंा॥२५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>२७
दोहरा: नद चंद कर बंदि कै,
कहो समीप मुकंद।
दुंदभि भयो बिलद अबि,
को दूजा न मनिद ॥१॥
चौपई: सुनि सतिगुर निस महि तबि सोए।
अुठे बहुर प्राती१ कहु जोए।
अधिक तिहावल करि मंगवायो।
हय पर दुंदभि दीह कसायो ॥२॥
श्री नानक ते आदिक नामू।
ले अरदास* करी अभिरामू।
पुन धौणसा धुंकारनि कीना।
दूर दूर लगि धुनि सुनि लीना ॥३॥
सभि के मनै बधो अुतसाहू।
पुरि नर अनिक आइगे पाहू।
पंचांम्रित सभि महि बरतायो।
गुरनि सराहि साद सभि पायो ॥४॥
सभि सुभटनि तारी निज करे।
ततछिन ग़ीन तुरंगन परे।
शसत्र बसत्र शुभ अंग लगाइ।
अुतसाहति सतिगुर ढिग आइ ॥५॥
इतने महि मसंद मिल दोइ।
श्री गुजरी कहि भेजे सोइ।
हाथ जोरि तिन अरग़ गुग़ारी।
तुम प्रति माता एव अुचारी ॥६॥
-कोण इम करहु जि वधहि बखेरा।
न्रिप कहिलूरी बली बडेरा।
तांहि देश दुंदभिबजवावहु।
नाहक बैठे सदन खिझावहु ॥७॥
१सवेर।
*पा:-करि दास।