Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) २०६

२४. ।जोध शाह॥२३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>२५
दोहरा: पसरो देश बिदेश महि, रूपा कीयो निहाल।
करैण गरीब निवाज गुरु, रज कन सैल बिसाल१ ॥१॥
चौपई: रिसहि सैल कन धूल करावैण२।
होइ प्रसंन सुरेश बनावैण।
सरब शकति धरि श्री गुरदेव।
सुर गन भी न लखहि जिस भेव ॥२॥
निकटि बसहि काणगड़ पुरि भारा।
तहि बसि जोध शाहु सरदारा*।
सैन चढहि तिह साथ घनेरी।
अधिक सूरमा मारति बैरी ॥३॥
मिज़ठा महिर बडो तिन केरा।
तिनहूं पायस राज बडेरा।
अकबर शाहु भयो जिस काला।
चज़क्रवरति किय राज बिसाला ॥४॥
मिज़ठे महिर सुता अुपजाई।
बहु सुंदर कुछ कही न जाई।
सुनि अकबर सो जाचन कीनि।
मुझ को बाहु देहु शुभ चीनि ॥५॥
सुनि किर मिज़ठे महिर बिचारी।
-पातशाहु देशन पति भारी।
नहि दैहौण तबि लै है छीन।
नहि कुछ बस बसाइ हम दीन३- ॥६॥
बली बिसाल जानि करि कहो।
जे मम तनुजाबाहनि चहो।
तौ घर आवहि दूलहु होइ।
फेरे फिरि, ले गमनहि सोइ ॥७॥
सुनि अकबर मानो तिस बैन।

१धूड़ी दे किंकिआण ळ पहाड़ बणा दिंदे हन।
२जे गुज़से हो जाण तां पहाड़ ळ धूड़ी दा किंका कर सकदे हन।
*पा:-जोध साहु सरदार अुदारा।
३असां गरीबाण दा।

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