Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २१०

इसत्री ताग चले पति प्रेत।
किते परे धर होइ अचेत१।
हला चली ऐसे तिनि परी।
गए थान तजि थिरै न घरी२ ॥७॥
हाहाकार करति भजि चले।
सकल दिशनि हुइ सकहिण न खले।
जोण जोण छरी हिलावन करिहीण।
तोण तोण तपत तिनहुण पर परिही ॥८॥
केतिक हाथ जोरि कहि बिनै।
तजहु हमैण नहिण नाहक हनै३।
कितिक काल को अुतरो४ डेरा।
हमहि सणभारनि दिहु इसु बेरा ॥९॥
छरी न चंचल करहु अगारी।
चले जाहिण हम तूरन धारी।
इस प्रकार माचो जबि रौरा।
सगरे गए छोरि तबि ठौरा ॥१०॥
हुती देवंी इक तिन मांही।
केतिक काल गरभ धरि तांही।
हुतो समीप प्रसूत समैण तिह।
परो शोर औचक ही द्रिग लहि५ ॥११॥
भए त्रास अुर, भाज पधारी६।
नहिण ढिग देखो पति रखवारी।
बिहबल दौरित त्रासति होई।
गिरो गरभ तबि सिस७ भे दोई ॥१२॥हुतो जार को तहां किदारा८।


१बेसुध।
२ठहिरे नां इक घड़ी बी।
३निहज़के नां मारो।
४हिलाओ नां।
५अचानक ही अज़खीण डिज़ठा।
६अुठ नठी।
७बज़चे।
८खेत।

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