Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) २०८

२७. ।शोक। चंदू। जहांगीर॥
२६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>२८
दोहरा: संमत सोरह सत हुते, अूपर पंच मिलाइ१।
सपतम हुती असौज की२, प्रिथीआ तबि जनमाइ ॥ १ ॥
निसानी छंद: सोरह सत त्रेहठ बिखै, माधव को मासा३।
म्रितक भयो+ सो जानीअहि, नहि पुरवी आसा।
बुरा सु चितवति गुरू को, सभि बैस बिताई।
जिम तसकर ससि४ को कहै, -जर कोण नहि जाई- ॥२॥
जिम अुलूक५ कहि सूर६ को, -किम अुदयति नीता७।
कोण न हिमाले महि गरहि, दुखदे हम चीता८-।
जथा जवासो पावसै९, दे दोश बडेरे।
-बिना चाह कोण बरसतो, हम हरित१० घनेरे- ॥३॥
बाटपार जिम पातकी११, निजघात तकावै।
धरमातम महिपाल को, गन दोश बतावै।
जार१२ जथा कुटवार को, नित चहति बिनासा।
बक मराल को पद चितहि१३, किम पुरवहि आसा ॥४॥
जिमि बिरहनि को१४ चांदनी, दीरघ दुखदाई।
तथा अनुज की कीरती, कबहु न मन भाई।
जिमि जंबुक बनपति बननि१५, नित जतन करंता।
केहरि को काढनि चहै, किमि इज़छ पुरंता ॥५॥

१भाव १६०५।
२अज़सू दी सज़त।
३भाव वैसाख सं: १६६३।
+प्रिथीए दी मौत दा समां होर खोज दा मुथाज है।
४चंदरमा।
५अुज़लू।
६सूरज।
७किअुण अुदय हुंदा है हमेश।
८हिमाले विच किअुण नहीण गल जाणदा दुख दिंदा हैण साडे चिज़त ळ।
९जवाहां बरखा रुत ळ।
१०हरे हां।
११जिवेण पापी धाड़वी।
१२यार, विशई।
१३बगला हंस दा मरतबा चाहे।
१४विछोड़े वाली ळ।
१५गिज़दड़ शेर बणन दा।

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