Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) २०९

२८. ।पुशकर॥
२७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>२९
दोहरा: गारह सै मंदिर महद, जैपुरि ते ढहिवाइ।
त्रास अुपाइव हिंद को, तुरक तेज तपताइ ॥१॥
चौपई: भई प्राति जबि सभा लगाई।
काग़ी अरु मुज़लां समदाई।
जिद कै बाद करति जे गाढे१।
अपर अनिक आए हुइ ठांढे ॥२॥
सभिनि संग नौरंग ने कहो।इस पुरि को मंदिर गन ढहो।
आगै नहीण बनावै कोई।
इम सग़ाइ सभिहिनि कहु होई ॥३॥
भगनि करे बुत मंदर गिरे।
त्रास बिलद रिदै महि धरे।
अपनि धरम ते धीरज छूटे।
करहि बिलोकनि इशट जि फूटे ॥४॥
अबि हिंदवाइनि को जहि ग़ोर।
चलि हैण तहां बतावहु ठौर।
जहि इक थल सग़ाइ कहु दैबे२।
अुज़तम अपनो मतो दिखैबे३ ॥५॥
थान हग़ार सुनहि४ अरु हेरे।
अुपजहि सभि मैण त्रास बडेरे।
आवहि शर्हा बिखै बिन कहे।
अुज़तमता तुरकनि की लहे ॥६॥
इम सुनि शर्हा बीच दिढ जेई।
हरख बधावति बोले तेई।
सनमानति नौरंग को कहो।
करति काज बाणछति को लहो५ ॥७॥


१जिद करके जो भारी झगड़ा करदे हन।
२जिज़थे इक (मुखी) सथान (होवे ते मैण) सग़ा देवाण।
३दिखावाण।
४हग़ाराण थावाण विच सुणन।
५भाव असां इह जाणिआण है कि जे साडे चित विच हुंदी है तुसीण वी अुहो करदे हो।

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